वो सात दिन कैसे बीते-3

(Vo Saat Din Kaise Beete- part 3)

This story is part of a series:

मैंने उसके घुटने मोड़ कर दोनों जांघों को फैलाया कि वो बंद पड़ी गहरे रंग की लकीर खुल गई, एकदम सुर्ख सा अंदरूनी भाग मेरे सामने आ गया।

छोटा सा सुर्ख रंग का भगांकुर… छोटी छोटी सी गहरे रंग की कलिकाएँ, नीचे हल्के गुलाबी रंग का वह भाग जो अभी अक्षत था, अछूता था, अनयूज़्ड था।

जहाँ योनिमार्ग इतना संकरा और आपस में ऐसे सटा हुआ था कि वहाँ गौर से देखने पर ही पता चलता था कि कोई छेद भी है, जो इस बात का सबूत था कि उसमें अभी लिंग तो क्या सींक भी न गई होगी।

लेकिन योनि असली नकली नहीं जानती… उसके लिए इतना काफी था कि कोई मर्द उसे उकसा रहा था, उत्तेजित कर रहा था और वो कामरस छोड़ रही थी।
उसके उस लगभग अदृश्य से छिद्र से निकलता पानी नीचे बहता उसके गुदाद्वार को गीला करते नीचे चादर तक पहुँच रहा था।

मैं अपने घुटनों को पेट से लगाए झुक कर एकदम उसके पास पहुँच गया और उस खुशबू को फेफड़ों में भरने लगा जो रस से जारी हो रही थी…

कुछ कुछ खरबूज जैसी गंध थी जो मेरे तनमन में न सिर्फ रोमांच भर रही थी बल्कि मेरे लिंग को इस कदर कड़ा होने पर मजबूर कर रही थी कि लग रहा था जैसे फट ही पड़ेगा।

मैंने वहाँ पर, जहाँ उसका भगांकुर उत्तेजित अवस्था में उभरा हुआ था- अपने होंठ टिका दिये।

वह एक बार फिर ज़ोर से कांपी…
और मैंने उसके कूल्हों में उंगलियाँ धंसाते हुए अपनी जीभ नीचे छेद की तरफ से लगाकर ऊपर क्लिटरिस हुड तक ज़ोर से खींचता चला गया।

उसकी ज़ोर की सिसकारी छूट गई…
वह इतनी जोर से तड़पी कि मुझे पीछे ठेल कर अपनी टांगें समेट लीं और बिस्तर की चादर को ताक़त से खींच कर अपने जिस्म को छुपा लिया और चेहरा नीचे करके हाँफने लगी।

मैं भी पास ही बैठा अपनी साँसें दुरुस्त करने लगा।

‘गुदगुदी हो रही थी… मेरी बर्दाश्त से बाहर हो रहा था।’ उसने भारी साँसों के साथ कहा।

‘ओके- रिलैक्स! छोड़ो, हम दूसरी बात करते हैं, ये बाल कभी बनाती नहीं क्या?’
‘कभी रेज़र, ब्लेड या हेयर रिमूवर नहीं यूज़ किया। बस कैंची से कुतर कर छोटे कर लेती हूँ।’

‘अगर चाहती हो कि इस गोरे मक्खन जैसे बदन के साथ ये हिस्सा मैच करता रहे तो इन दोनों में से कोई चीज़ यूज़ न करना क्योंकि दोनों ही से आसपास की त्वचा काली पड़ जाती है, बल्कि वैक्सिंग से बाल निकलवाना। स्किन ऐसी ही बनी रहेगी।’

‘यहाँ कौन करता हैं ‘वहाँ’ की वैक्सिंग। बगलों की कराती हूँ… एक बार ऐसी ही पार्लर वाली से पूछा था तो हंसने लगी थी कि अभी हम इतने एडवांस नहीं हुए। हेयर रिमूवर से काम चलाइए।’

‘चलो अभी कैंची से काम चलाओ, बाद में अपने हबी से वैक्सिंग कराना। कल कैंची से कुतर कर छोटे कर लेना।’

‘ठीक है, अब तुम जाओ। आज के लिए इतना डोज़ काफी है और हाँ अपना मोबाइल छोड़े जाओ। सोने से पहले मैं छत पे जाकर तुम्हारी दीवार पे रख दूंगी, तुम सुबह उठते ही उठा लेना।’

‘मेरा मोबाइल क्यों?’

‘क्योंकि मैं नहीं चाहती कि कभी कोई पोर्नोग्राफिक वेब हिस्ट्री मेरी आईपी के साथ अटैच पाई जाए।’

‘ओके… पर पोर्न साइट्स पता हैं। ‘
‘नहीं- वह भी बता के जाओ।’

मैंने उसे अन्तर्वासना और इन्डियन पोर्न विडियो साइट बताई और चोरों की तरह वहाँ से रुखसत होकर अपने कमरे में आ गया।

पर मेरी जो हालत थी उसमें नींद आ पाना मुमकिन नहीं था।
एक ही विकल्प था कि मैं हाथ के घर्षण से वीर्यपात करूँ और चुपचाप सो जाऊं… मैंने ऐसा ही किया।

अगले दिन मंगल था… मैं सुबह फोन उठा लाया था।

उसने व्हाट्सप्प पे मैसेज कर दिया था कि रात देर से सोई थी इसलिए दिन की शुरुआत ग्यारह बजे होगी।

मैं उसकी हालत समझ सकता था।
सुबह नाश्ता पानी करके मैं फोन पर टाईमपास करने लगा।

और ठीक ग्यारह बजे मुक़र्रर मुकाम पर पहुँच गया जो कि आज आर्यकन्या स्कूल की तरफ था जहाँ से मैं उसके मुताबिक बाइक चलाते रेजीडेन्सी ले आया।

बाइक साइड में स्टैंड पे जमा करके हम अंदर आ गए।

घुसते ही जो बाईं तरफ खंडहर थे वहाँ पहुँच कर जैसे ही हम थोड़ी आड़ में हुए, उसने जिस्म पे मढ़ा नक़ाब और स्कार्फ़ उतार कर अपने पर्स में ठूंस लिया।

उसके तन पे उन्ही कपड़ों में से एक जीन्स और टी-शर्ट थी जो उसने कल खरीदे थे।
बाल भी उसने इसी काया के अनुरूप पोनी टेल की सूरत में बांध रखे थे और अपने वास्तविक रूप से बिल्कुल अलग लग रही थी।
गले में स्टोल डाल रखा था जो चेहरे को कवर करने के काम आना था शायद, फ़िलहाल तो चाँद सा नूरानी चेहरा आवरण रहित था।

‘मारव्लस!’ मैं प्रशंसात्मक स्वर में बोला- ग़ज़ब लग रही हो! सेक्सी दिख रही हो! जैसी बहनजी टाइप बनी रहती हो उसके एकदम उलट!’

वह फरमाइशी ढंग से हंसी।

मैंने उसे बाँहों में दबोच लिया, उसने छटपटा कर निकलने की कोशिश की लेकिन सफलता तभी मिली जब उधर कोई और आ गया।

वहाँ से हटकर हम उधर कब्रिस्तान की तरफ निकल आये जहाँ झाड़ियों में आलरेडी कई जोड़े घुसे हुए थे।

एक झुरमुट हमें भी खाली मिल गया तो हम भी उसी में ‘फिट’ हो गए।

वहाँ इस बात की आसानी थी कि मैं उसे न सिर्फ बाँहों में दबोच सकता था बल्कि अपने हाथ उसके बूब्स की मालिश मर्दन में लगा सकता था।

न सिर्फ ऊपर से बल्कि उसकी टी-शर्ट के अंदर डाल कर ब्रा को ऊपर की तरफ धकेल कर दोनों कबूतरों को नीचे खींच लिया था और हौले हौले उन स्पंजी मम्मों क सहला दबा रहा था।

जैसी उम्मीद थी उसने रोकने की कोशिश की थी लेकिन जल्द ही इस मर्दन और रगड़न का मज़ा मिलते ही उसने हथियार डाल दिए थे।
और अब वस्तुस्थिति यह थी कि वह अधलेटी सी मेरी गोद में थी और मैं दोनों हाथों से उसके मम्मों का मर्दन कर रहा था।

‘तो कल कैसी गुज़री?’ मैंने अपने होंठ उसके कान के पास रखते हुए पूछा।

‘बहुत बुरी गुज़री। सब कुछ अच्छा लेकिन अजीब सा लग रहा था।
जो कहानी पढ़ी, जो वीडियो देखी… सबने एक अजीब सा नशा पैदा दिया, पूरा जिस्म सनसना रहा था, दिमाग पर अजीब सा नशा सवार था…
बार बार अपने वेजाइना पे हाथ लगने को जी रहा था जो चिंगारियां छोड़ रही थी। वह बस बह रही थी।
पूरे जिस्म में अजीब सी ऐंठन और बेचैनी हो रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कही किसी मुकाम पे पहुँचना है, जैसे इस सबका कोई अंत होना है…
लेकिन क्या, कुछ समझ में नहीं आ रहा था।’ उसने लहराती कपकपाती आवाज़ में कहा।

‘जो अभी महसूस हो रहा है।’

‘सेम… ऐसा ही, बस अच्छा लग रहा है। दिमाग पर मस्ती, नशा हावी हो रहा है। पूरे जिस्म में एक मादक सी सनसनाहट फैल रही है। दिल कर रहा है बस करते रहो।
ऐसा लगता है जैसे कुछ मेरे जिस्म में कैद है जो निकलना चाहता है। जैसे कोई लावा हो जो बार बार किनारों से टकराता हो और किनारों को तोड़ कर बाहर निकल जाना चाहता हो पर अजीब सी बेबसी महसूस हो रही है कि निकल नहीं पा रहा।’

‘आज रात हम उस लावे को बाहर निकालेंगे।’

‘कल जब सब ख़त्म करके सोने की कोशिश की तो इस बेचैनी ने सोने नहीं दिया। बची खुची रात ऐसे ही थोड़ा सोते जागते गुज़री।’

मैं उसके जिस्म को अपनी गर्म हथेलियों की हरारत बख्शता रहा और इधर उधर की बातें होती रहीं।

काफी देर वहाँ पड़े रहने के बाद वहाँ से हट के थोड़ा वक़्त अंग्रेज़ों पे चली गोलियों के निशानों की गवाही देते खंडहरों में गुज़ारा और फिर भूख लग आई तो वहाँ से निकल के अमीनाबाद जाकर नहरी कुल्चा खाया।

इसके बाद वहाँ से एकदम उलट जनेश्वर मिश्र पार्क चले आये जहाँ अगले दो घंटे रहे।

इस बीच वह अपने बचपन से लेकर जवानी तक की बातें बताती रही।

वहाँ से निकल कर थोड़ी राइडिंग पत्रकारपुरम में की, उसके बाद थोड़ा वक़्त अम्बेडकर पार्क में गुज़ारा और उसी तरफ से पेपर मिल
कॉलोनी की तरफ से होते हुए वापसी की… जहाँ एक जगह मौका देख कर उसने फिर नक़ाब और स्कार्फ़ से खुद को मढ़ लिया।

इस बार उसे फ्लाईओवर के इस सिरे पे उतार कर मैं आगे बढ़ गया।

वह वहाँ से रिक्शा से चली गई और मैं गोल घूम कर थोड़ी देर बाद घर पहुँचा जहाँ अगले 3 घंटे खाने पीने, वाक करने में गुज़ारे।

थोड़ी हाय हेलो उस दूसरी लड़की से की जिसका ज़िक्र मैंने किया था और फिर दस बजे आज के एपिसोड के लिए तैयार हो गया।

आज फिर वो एक सेक्सी से नाइटवीयर में थी। उसके चेहरे पे छाई दृढ़ता को देख कर लगता था कि वह उस अंत को जानने के लिए तैयार थी।

मेरी तो यही शर्त थी कि चाहे गुदगुदी हो या कुछ और… वह मुझे रोकेगी नहीं।

‘बस इतना ध्यान रखना मेरी वर्जिनिटी बनी रहे।’ उसने गुज़ारिश की।

‘वादा करता हूँ कि तुम्हे पछताना नहीं पड़ेगा। अब आगे तुम सब मुझ पे छोड़ दो।’
उसने आँखों से सहमति जताई।

मैं उसे हाथ से पकड़ते हुए बिस्तर पे ले आया और उसके इतने पास आ गया कि मेरी गर्म सांसें उसके चेहरे से टकराने लगीं।

उसकी आँखों में झांकते हुए मैंने उसके होंठों से अपने होंठ टिका दिए और उन्हें चुभलाने लगा… उसने सिर्फ पैंटी और सैंडो बनियान पहन रखा था जिससे उसके बदन की पूरी गर्माहट मैं अपने जिस्म पर महसूस कर सकता था।

मैंने उसकी बनियान को ऊपर सरकाते और अपने हाथ उसकी पैंटी में घुसाते हुए उसके नरम गुदाज चूतड़ों को अपनी मुट्ठी में भींच लिया।

इस सख्त स्पर्श पर उसके बदन में एक लहर सी दौड़ गई।
उसने भी अपनी बाहें उठा कर मेरे गले में पिरो दीं और एक प्रगाढ़ चुम्बन में सहयोग करने लगी।

यह तो ज़ाहिर था कि थोड़ी ही देर में उसके दिमाग पर नशा हावी होने लगा और बदन से चिंगारियाँ छूटने लगीं।

उसने खुद से मुझसे अलग होते हुए मेरे बदन से मेरी टीशर्ट निकाल फेंकी और मैंने अपनी लोअर खुद अलग करके डाल दी और उतनी ही तेज़ी से उसकी बनियान और पैंटी भी उतार दी।

अब हम मादर ज़ात नंगे थे।

इस नग्नता का एहसास उसके गुलनार होते गालों और झुकी हुई पलकों से ज़ाहिर हो रहा था.. मैं तो खैर बेशर्म था ही।

मैंने उसे फिर से दबोच लिया।

दो नग्न शरीरों का आपसी स्पर्श और घर्षण दिमागी अख्तियार को बेहद कमज़ोर कर देता है- यह मेरे लिए पुराना मगर उसके लिए एकदम नया अनुभव था।

मैं उसके गुलाबी नरम होंठों से जैसे शहद को खींच निकालने की कोशिश करने लगा और इस बीच उसके शरीर पर फिरते मेरे हाथ कभी उसके नितम्बों, कभी मम्मों और कभी योनि के किनारों से घर्षण करने लगे।

मैंने यह भी महसूस किया कि वह भी बेअख्तियार अंदाज़ में मेरे लिंग को अपने हाथों में ले लेकर मसल देती थी, सहला देती थी।

बिस्तर की चादर अस्त-व्यस्त होने लगी।

मैंने उसके होंठों से खुद को हटाते हुए उसके चेहरे, गर्दन और कन्धों पर होंठ रगड़ने शुरू किये और वह खुद ही सुविधाजनक अंदाज़ में चित लेट गई और मैं अपना भार अपने घुटनों पर देते हुए उसके ऊपर आ गया।

मैं अपने होंठ उसके कन्धों से उतारते हुए उसके बाये वक्ष पर ले आया और वहाँ आकर रुक जहाँ एक छोटी सी पिंकिश भूरी चोटी उत्तेजना से तनी हुई थी।
उस पर एक हल्का चुम्बन अंकित करते हुए मैंने अपनी जीभ निकाली और उसे ज़ुबान की नोक से छेड़ने लगा।

वह ‘सी-सी’ करती अकड़ने लगी, उसके बदन की थरथराहट मैं महसूस कर सकता था।

उसने होंठ अंदर करके भींच लिए थे और अपनी एक हथेली से बिस्तर की चादर रगड़ रही थी तो दूसरी मुट्ठी में चादर को दबोच लिया था।

कुछ देर उससे किलोलें करने के बाद मैंने उसे होंठों के बीच दबोच लिया और हल्के हल्के दांतों का स्पर्श भी देते हुए चुभलाने लगा।

मेरा बायां हाथ तो सहारे के लिए गद्दे पे था लेकिन दाएं हाथ से मैं उसकी दूसरी चोटी को चुटकी में लेकर मसलने लगा।

उसकी साँसें भारी हो गईं और मुंह से दबी दबी सिसकारियाँ आज़ाद होने लगीं।

उसने अपने दोनों हाथों से अब मेरा सर थाम लिया था और सहलाने लगी थी।

थोड़ी देर बाद मैंने बाईं साइड की नोक छोड़ी तो दायीं साइड की नोक को मुंह में ले लिया और बाईं ओर की गीली हो चुकी चोटी को अपने बाएं हाथ से मसलने लगा।
बस ऐसा लग रहा था जैसे शहद भरी फूली हुई किशमिश हो जिसे चूसते चूसते चबा डालने की सख्त इच्छा हो रही थी।

जब उन किश्मिशों से जी भर गया तो उन्हें छोड़ कर नीचे सरक चला।

उसने मेरे सर से अपने हाथ हटा लिए और तकिया के कोने पकड़ लिए।

नीचे उसके सपाट गोरे पेट पर गहरा सा नाभि का गढ्ढा कम आकर्षक नहीं था… मैं जीभ की नोक से उसे छेड़ने लगा।
फिर उसके शरीर में ऐसी लहर दौड़ी जैसे उसे गुदगुदी हो रही हो लेकिन उसने मुझे धकेला नहीं।

नाभि को गीला करके मैं वहाँ उतर आया जो मेरी क्या हर मर्द की मंज़िल थी। आज, कल की तरह बाल नहीं थे, बल्कि उन्हें बड़ी नफासत से कुतर दिया गया था और अब उनके बीच की त्वचा भी स्पष्ट हो रही थी।

मैंने एक प्यार और भरोसे से भरा चुम्बन वहाँ अंकित करके खुद को उसके घुटनों से नीचे ले आया। उसके पैरों को घुटनों से मोड़ कर उन्हें अंतिम हद तक फैला दिया जिससे उसकी अनछुई, कुंवारी योनि अपने पूरे आकार में मेरे सामने खुल सके।

वह अपनी प्रकृति के अनुसार गर्म होकर रस छोड़ने लगी थी जो उसकी योनि से उतर कर उसके गुदाद्वार को गीला कर रहा था और वैसी ही ख़रबूज़े जैसी महक आ रही थी।

मैं उस खुशबू को अपने फेफड़ों में भरते हुए एकदम करीब से उसकी योनि की बनावट को देखने लगा।

ऊपर जहाँ भगांकुर था, एक हुड की तरह निकले मांस से सुरक्षित था और किनारे को भगोष्ठ ढके हुए थे जो भले अभी छोटे थे मगर अपना काम बखूबी कर रहे थे।

मैंने उन गन्दुमी पर्दों को अपनी उँगलियों से खोला तो अंदर के सुर्ख और गुलाबी भाग के दर्शन हुए।

मैं जीभ की नोक से उसके भगांकुर को छूने लगा।
उसके शरीर में लहरें पड़ने लगीं और भिंचे हुए होंठों से मस्ती और उत्तेजना में डूबी आहें छूटने लगीं।

मैंने अपना ध्यान पूरी तरह वहीं केन्द्रित कर लिया था और अपनी उंगलियों से उसके चूतड़ों को मसलने, दबाने लगा था।
बार बार के स्पर्श के बाद मैंने बाक़ायदा वहाँ अपना मुंह चिपका दिया।

उसके रस से मेरे होंठों के आसपास का हिस्सा और नाक गीले हो गए।

अब न सिर्फ मैंने अपनी जीभ की नोक से उसके लगभग बंद पड़े छेद को धंसाने लगा अपितु उसकी क्लिटोरिस को भी होंठों में दबा दबा कर खींचने लगा।

उसकी आवाज़ें तेज़ होने लगीं, उसके जिस्म में मादक लहरें उठ रही थीं और वह बार बार एकदम कमान की भांति तन जाती थी, बार बार मुट्ठियों में चादर दबोचती, छोड़ती और एकदम मेरे सर को पकड़ कर दबा देती।

मुझे उसकी तेज़ सिसकारियों से डर लग रहा था, जो कमरे की हदों को तोड़ कर बाहर तक जा रही थीं।

हालाँकि वह तब भी उतनी ही तेज़ थीं कि कोई ऊपर से उतर कर नीचे आ जाता या नीचे से दादा दादी जीने चढ़ के ऊपर दरवाज़े तक आ जाते तभी सुन पाते और यह लगभग नामुमकिन था।

फिर मैंने अपनी इंडेक्स फिंगर उस बंद पड़े छेद में उतार दी।
आम हालत में शायद यह उंगली भी उसे किसी लिंग जैसा दर्द देती लेकिन जो कामोत्तेजना से उसकी हालत हुई पड़ी थी… उसमें वह कामरस से ऐसी सराबोर और लचीली हो चुकी थी कि उसने उंगली का ज़रा भी प्रतिकार न किया।

उंगली को अंदर धंसते अनुभव करते वह चिहुंकी थी मगर यह वक़्त अनअपेक्षित प्रतिक्रिया देने के लिए अनुकूल नहीं था अतएव बस ज़ोर की ‘सी’ करके रह गई।

भले आपके शरीर को चौबीस घंटे आपका दिमाग नियंत्रित करता हो लेकिन ऐसे निजी पलों में दो विपरीतलिंगी शरीरों के आपसी घर्षण के वक़्त आपके यौनांग आपके दिमाग को नियंत्रित करते हैं- यह एक कड़वी हकीकत है और उसकी इस वक़्त यही हालत थी।

मैं उंगली सिर्फ उतनी गहराई तक ले गया था कि उसकी झिल्ली को कोई क्षति न पहुंचे और उसकी सीमा जान कर मैं उतनी गहराई में ही उंगली अंदर बाहर करने लगा।
साथ ही अपने होंठ और जीभ से उसकी कलिकाओं और भगांकुर को चुभला रहा था खींच रहा था।

उसकी साँसों में जैसे गुर्राहटें सी आ गईं थीं… चेहरा एकदम लाल पड़ गया था और नशे से आँखें भी अजीब सी हो गई थीं।
वह मेरे सर के बालों को नोच डालने पर उतारू हो गई थी।

‘प…प्लीज… अब बस करो, क-कुछ निकल जाएगा… प्लीज!’ उसने भारी साँसों के बीच लड़खड़ाती हुई आवाज़ में कहा।

मैं एकदम से उछल के बिस्तर से नीचे आ गया और उसे चूतड़ों से पकड़ के एकदम किनारे ले आया और गद्दे की कगार पर उसके चूतड़ टिकाते हुए खुद फर्श पर उकड़ू बैठ गया और उसके पेट को एक हाथ से पकड़ कर फिर वैसे ही मुंह और उंगली को उनकी जगह पहुंचा दिया।

‘जो निकले निकाल दो… रोको मत, वर्ना रात भर फिर सो नहीं पाओगी।’ बीच में मैंने मुंह उठाते हुए कहा और फिर वहीं टिक गया।

उसके बदन की अकड़न बढ़ने लगी।

फिर उसके योनिद्वार से ऊपर छोटे से हुड से ढके मूत्रद्वार से एक तेज़ धार निकल पड़ी। कुछ तो मेरे मुंह में गई और कुछ मेरी गर्दन और सीने से होती नीचे फर्श पर…

उसके मुंह से एक तेज़ आह निकली थी और वह बुरी तरह अकड़ने लगी थी।
साथ ही उसके योनिद्वार से भी रस निकल पड़ा था जिसे मैंने अपनी उंगली पे अनुभव किया। इसके बावजूद भी मैंने खुद को उससे अलग नहीं किया बल्कि जो कर रहा था वैसे ही करता रहा।

यह उसका पहला पानी था जो इस तरह मूत्र के साथ निकल पड़ा था।

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मूत्र निकलना कोई बड़ी बात नहीं, ऐसे समय अगर यूरीन ब्लेडर भरा हो तो स्खलन के समय जब योनि की मांसपेशियाँ फैलती सिकुड़ती हैं तो वे मूत्र को भी नियंत्रित नहीं कर पाती।

मैं वैसे ही जीभ से उसे चाटते हुए उंगली से अंदर बाहर करता रहा और वह रुक रुक कर न सिर्फ पेशाब करती रही बल्कि स्खलित भी होती रही।

जो मूत्र मेरे मुख में जा रहा था वह मैं ऐसे ही निकाले दे रहा था कि बिस्तर पे न जाए और जो गर्दन सीने पे जा रहा था वो तो नीचे जा ही रहा था लेकिन जो स्खलन का रस बह रहा था वह ज़रूर चादर को भिगा रहा था।

जी भर के स्खलित होने के बाद वह सनसनाते हुए मस्तिष्क के साथ ऐसे बेजान सी पड़ गई जैसे बेहोश हो गई हो।
मैंने उसे पैरों से थाम कर पूरी तरह बिस्तर पर कर दिया और खुद को वहीं पड़े उसके स्टोल से साफ़ करने लगा।

मेरा मुंह भी थक गया था तो मैं भी उसके बगल में पड़ गया और अपनी साँसें दुरुस्त करने लगा।

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