वो सात दिन कैसे बीते-2

(Vo Saat Din Kaise Beete- part 2)

This story is part of a series:

मेरे पड़ोस की पर्दानशीं लड़की ने मुझ पर भरोसा करके मुझे मिलने के लिये बुलाया।

वादे के मुताबिक वो दस मिनट में ही पहुँच गई, वैसी ही ढकी मुंदी थी जैसे हमेशा दिखती थी।

खुद से ही पास आई और बाइक पे बैठते हुए बोली- लोहिया पार्क चलो।

मैंने आदेश का पालन किया और थोड़ी देर बाद हम लोहिया पार्क के एक कोने में घास पर बैठे थे।

‘मैं कुछ कहूँ, उससे पहले एक वादा करो कि कभी मेरे इश्क़ में मुब्तिला नहीं होगे। समझो कि मैं चाँद हूँ जो इत्तेफ़ाक़ से कुछ वक़्त के लिए तुम्हारे साथ हूँ पर तुम हासिल करने के बारे में सोचोगे भी नहीं!’

‘मैंने पहले ही कहा था कि मैं अपनी लिमिट जानता हूँ और इस बात के बावजूद कि तुम मेरे साथ इस पार्क में प्रेमिका की तरह बैठी हो मैं इस खुशफहमी में मुब्तिला नहीं कि तुम मेरे इश्क़ में पगला गई हो। बल्कि समझ रहा हूँ कि शायद तुम्हें कुछ काम है, शायद तुम्हें कुछ वक़्त के लिए ऐसे पुरुष साथी की ज़रुरत है जिससे तुम अपने मन की वे बातें शेयर कर सको जो अपनी सहेलियों से या कर नहीं पाती या करने से संतुष्टि नहीं महसूस करती।’

‘यही तुम्हारे सवाल का जवाब है कि तुम्हें लेकर मैं सोचती थी कि तुम एक मैच्योर शख्स की तरह मुझे समझोगे, न कि मेरी नज़दीकी हासिल होते ही जवां लौंडों की तरह पगला जाओगे।’

‘ठीक है, अब कहो।’

‘मेरी एक बड़ी बहन है जो शादीशुदा है, दुबई में रहती है। शायद मुझसे भी ज्यादा खूबसूरत। वो मुझसे बड़ी है, मैंने बचपन से ही उन्हें देखा समझा… जब छोटी सी थीं तभी से पढाई के साथ घर की ज़िम्मेदारी लाद ली और पर्देदारी ऐसी कि खुले में जा भी न सकें, खुल के हंस बोल भी न सकें। हमेशा पाबंदियों में जीना, लड़कों के साथ घूमना फिरना तो दूर, बात तक करना दूभर…
अम्मी अब्बू दोनों ही पुराने ख़यालात के हैं, उन्हें लगता है कि हमारा किसी लड़के से बोलना भी हमारी बदनामी का सबब बन जायेगा।

मैंने नहीं देखा कि कभी उन्होंने ज़िन्दगी अपने तरीके, अपने अंदाज़ में जी हो… हमेशा सबकी उम्मीदों को पूरा करते जवान हुईं और फिर शादी और उसके बाद वही सब अपने शौहर के लिए। वही पर्देदारी, वही पाबंदियाँ, वही एकरसता से भरी बोरिंग ज़िन्दगी।

मैं भी वही ज़िन्दगी जी रही हूँ और मेरा अंजाम भी वही होना है लेकिन मैं तो पुराने ज़माने की नहीं। अपने साथ की लड़कियों को देखती हूँ जिनमें कई मेरे मजहब ही हैं लेकिन उन पर तो ये पाबंदियाँ नहीं। वे पढ़ती हैं, खेलती हैं, पार्कों, माल में मौजमस्ती करती हैं, थिएटर में फिल्म देखती हैं, लड़कों के साथ भी घूमती हैं और उनकी शादी भी हुई तो अपने शौहर के साथ भी वही ज़िंदगी। कहीं कोई रोक टोक नहीं। कहीं किसी की बदनामी नहीं हुई जा रही, किसी के खानदान पर आंच नहीं आई जा रही।

यह सब देख कर खटकता है, किसी कमी का एहसास होता है, मन में बगावत पैदा होती है। आज जो मैंने तुम्हें आज़माने के लिए ‘शो’ दिखाया वो मेरी आज़माइश भी थी, अपनी बगावत को आज़माने की, अपनी जुर्रत को देखने की कि क्या कुछ वक़्त के लिए सही पर मैं उन बेड़ियों को तोड़ सकती हूँ जो मेरे पैरों में वालदैन ने डाल रखी हैं, मज़हब और रिवाज़ों ने डाल रखी हैं।’

‘चलो, हम दोनों आज़माइश में कामयाब रहे… अब?’

‘मुझे मेरा अंजाम पता है। वही एक जैसी बोरिंग, एकरसता से भरी ज़िन्दगी जीते आई हूँ और बी एस सी करते ही मेरी शादी करने का प्लान है यानि शौहर के घर जाकर इसी सिलसिले को कंटिन्यू करना है। दिन भर घर के काम, ससुराल वालों की उम्मीदें पूरी करो, रात में शौहर की भूख मिटाओ, फिर बच्चे पैदा करो, उन्हें बड़ा करने में खुद को खपा दो। बस।
पर इस सबके बीच मैं कुछ दिन अपने लिए जीना चाहती हूँ। वो सब करना चाहती हूँ जो बाकी लड़कियाँ करती हैं। खुद को आज़ाद महसूस करना चाहती हूँ- वालदैन से, रिवाज़ों से, मज़हब से।
कुछ दिन के लिए मैं वो ज़िन्दगी जीना चाहती हूँ जो मैं अपने बुढ़ापे तक याद रखूँ!’

‘कैसे?’
‘घर के लोग गाँव गए हैं। वहाँ मामू रहते हैं जिनके आखिरी बेटे की शादी है इसलिए इतने दिन रुकने का प्रोग्राम बना। मेरे बाकी रिश्तेदार यहीं लखनऊ में रहते हैं इसलिए इस शादी के बाद कोई ऐसा मौका नहीं बनने वाला कि मुझे यूँ आज़ाद होने का मौका मिले।
सब लोग संडे रात तक आएंगे… यानि हमारे पास पूरे सात दिन हैं और इन सात दिनों में मैं जी लेना चाहती हूँ। पिछले तीन महीने से मुझे पता था कि ऐसी नौबत आने वाली है और मैं कोई ऐसा ही साथी चाहती थी जो ये वक़्त मेरे साथ मेरे तरीके से तो गुज़ारे मगर आगे मेरे लिए प्रॉब्लम न बने क्योंकि मैं इश्क़ नहीं कर सकती और न सेक्स।

मेरा कौमार्य मेरे शौहर की अमानत है और अपनी ज़िन्दगी जीते हुए भी मैं इतनी ईमानदारी तो ज़रूर निभाऊंगी कि मुझे उस इंसान के सामने शर्मिंदा न होना पड़े जिसके साथ मुझे पूरी ज़िन्दगी गुज़ारनी है।
मुझे तुममे यह उम्मीद नज़र आती थी कि जो मैं चाहती हूँ शायद तुम उसमे काम आ सको और देखो मेरी उम्मीद गलत नहीं साबित हुई।’

‘मतलब यह कि ये सात दिन तुम उन आज़ाद लड़कियों की ज़िन्दगी जीना चाहती हो जिन्हें अपने आसपास देखती आई हो!’
‘हाँ।’

‘पर वे सिर्फ पार्कों, मॉल में ही नहीं जाती, लड़कों के साथ बाइक पे बैठ के टहलती, फिल्में ही नहीं देखती बल्कि निजी पलों में फिज़िकल भी होती हैं, न सिर्फ हगिंग, किसिंग बल्कि सहवास भी!’

‘हम भी वो सब करेंगे, सिर्फ एक चीज़ इंटरकोर्स को छोड़ कर। पर प्लीज, तुम कोई अटैचमेंट नहीं पालना वर्ना हम दोनों को ही तकलीफ होगी।’

‘नहीं, मैंने दिमाग में बिठा लिया है कि यह एक स्क्रिप्टेड शो है और चौबीस घंटे हमारे आगे पीछे कैमरे चल रहे हैं और हम बस एक्टिंग कर रहे हैं। खुश?’
‘खुश!’ उसके चेहरे पर इस घड़ी बच्चों जैसी ख़ुशी दिखाई दी जिसे उसका मनपसंद खिलौना मिल गया हो।

वो खुश थी तो मैं खुश था, इस हकीकत को समझने के बावजूद कि जैसा वह सोच रही थी वैसा नहीं होने वाला था।

कोई जोड़ा जो इतने क्लोज़ आये कि उनमें फिज़िकल एक्टिविटीज भी हों और वो भावनात्मक रूप से अटैच न हो, ऐसा मेरे जैसे मैच्योर, तजुर्बेकार शख्स के लिए तो किसी हद तक संभव भी था जिसके नीचे से पहले भी कई लड़कियाँ गुज़र चुकी हों लेकिन उसके जैसी कम उम्र की, नई नई जवान हुई लड़की के लिए नामुमकिन था- पर उसे ऐसा जाता कर मैं अपना काम नहीं बिगड़ना चाहता था।

हाँ, उसे इस बात का अहसास ज़रूर था कि फिज़िकल होने वाले कमज़ोर पलों में वह बहक सकती थी इसीलिए उसने मेरे जैसे ज्यादा उम्र के और तजुर्बेकार शख्स को इस अनुभव के लिए चुना था जो ऐसी किसी हालत में न सिर्फ खुद को सम्भाल सके बल्कि उसे भी बहकने से रोक सके।

यहाँ मैं ज़रूर उसकी अपेक्षाओं पर पूरा उतरने के लिए तैयार था।

‘तो चलो शुरू करते हैं- नए रोमांच की पहली घड़ी… मेरे लिए!’
मैं उसकी शक्ल देखने लगा।

‘एक मर्द का पहला स्पर्श!’ कहते हुए उसकी आवाज़ में अजीब सी उत्तेजना थी।

‘क्यों? पहले किसी को स्पर्श नहीं किया क्या?’

‘अरे वो स्पर्श अलग था… यहाँ बात और है।’

मैंने उसके हाथ थाम लिए और भरी भरी कलाइयाँ सहलाने लगा।
उसने इस पहले सेक्सुअल स्पर्श को अनुभव करने के लिए आँखें बंद कर ली थीं।

उसकी सिहरन मैं अपनी हथेलियों में महसूस कर सकता था।
मैंने कलाइयों को सहलाते हुए अपने हाथ उसकी मखमली बाहों से गुज़ारते हुए उसके गोरे गोरे गालों तक ले आया।

वह काँप सी गई।

मैं अपना चेहरा उसके चेहरे के पास ले आया कि मेरी साँसें उसके चेहरे से टकराने लगीं।
मैंने अपने होंठ उसके माथे से टिका दिए…
उसके जिस्म में एक लहर सी फिर गुज़र गई।

हालाँकि एक तरह से ये एक्टिंग थी, नकलीपन था मगर फिर भी वो अपना मज़ा ले रही थी और मैं अपना मज़ा ले रहा था।
फिर उसने मुझे परे धकेल दिया।

‘अजीब सा लग रहा था… बेचैनी सी पैदा हो रही थी। पूरे जिस्म में सनसनाहट सी होने लगी थी।’ उसने कुछ झेंपे झेंपे अंदाज़ में कहा।

‘अच्छा या बुरा?’ मैंने शरारत भरे स्वर में कहा।

‘चलो फन चलते हैं। मुझे कुछ शॉपिंग करनी है।’ मेरी बात काट कर उसने अपनी बात कही।

कुछ कहने के बजाय मैं उठ खड़ा हुआ।
फन मॉल सड़क के उस ओर ही था…
हम वहाँ आ गए जहाँ घंटे भर की छंटाई के बाद उसने एक जीन्स और एक टी-शर्ट ली।

इसके बाद उसने सहारा गंज चलने को कहा और हम वहाँ से रुखसत हो गए।
वही से वाया बटलर रोड, अशोक मार्ग होते सहारा गंज ले आया।
यहाँ भी उसने घंटे भर की मगज़मारी के बाद बिग बाजार और पैंटालून से एक एक जीन्स और टॉप खरीदा।

तब तक कुछ भूख भी लग आई थी तो हमने वहीं ऊपर रेस्टॉरेंट से पिज़्ज़ा खाये और इसके बाद उसकी मर्ज़ी के मुताबिक मैं उसे बड़े इमामबाड़े ले आया जहाँ काफी देर इधर उधर घूमते, बकैती करते वक़्त गुज़ारा और फिर सामान, चप्पल देखने वाले को पकड़ा कर बाउली और भुलभुलइयाँ की तरफ चले आये।

वहाँ कई कम रोशनी वाले कोनों में ऐसे जोड़े दिखे जो लिपटे चिपटे चूमाचाटी में मस्त थे और जिन्हे देख कर उसकी आरजुएँ भी सर उठाने लगीं थीं।
अतएव वह मुझे एक दर में खींच लाई।

‘देखो, मैं नहीं चाहती कि मैं सबकुछ अपने मुंह से कहूं। मैं चाहती हूँ कि तुम खुद से समझो कि मेरी उम्र की लड़की की क्या इच्छाएँ होती हैं। तुम्हें जो लगे करो… मेरी सिर्फ एक शर्त है कि मेरी वर्जिनिटी नहीं डिस्ट्रॉय होनी चाहिए वर्ना पूरी उम्र पछताऊँगी कि मैंने ऐसा कदम क्यों उठाया। इसके सिवा तुम्हें सबकुछ करने की इज़ाज़त है।’
उसने मेरी आँखों में देखते हुए कहा।

अब अंधे को क्या चाहिये… दो आँखें ही न!

मैंने खड़े खड़े उसे पीछे की दीवार से सटाते हुए अपनी बाँहों में बाहर लिया।
वह काँप सी गई।
ज़ाहिर है कि किसी मर्द के इतने पास आने का उसके लिए यह पहला मौका था।

मैं उसकी आँखें में झांकते हुए अपना चेहरा उसके चेहरे के इतनी पास ले आया कि हमारी साँसें एक दूसरे से टकराने लगीं।

‘इस बार मत धकेलना, चाहे जितनी भी बेचैनी हो।’

उसने कोई जवाब नहीं दिया, बस मेरी आँखों में देखती रही।

मैंने अपने होंठ उसके होंठो के इतने पास ले आया कि वह उनकी गर्मी महसूस कर सके।

कुछ देर वह उनकी गर्मी बर्दाश्त करती मेरी आँखों में देखती रही। मैं उसकी भारी हो गईं साँसें अपने होंठों पर महसूस करता रहा, फिर जब लगा कि उसके होंठ अपने पहले बोसे के लिए तैयार हो चुके थे तो मैंने उसके होंठों से अपने होंठ जोड़ दिए।

उन्होंने वाकयी गर्मजोशी से मेरे होंठों का स्वागत किया, एक गहरी थरथराहट उसके जिस्म से गुज़री थी जिसे बखूबी मैंने जिस्म पर महसूस किया था और जैसे किसी नशे के अतिरेक से उसकी आँखें मुँद गईं थीं।

मैं उसके निचले होंठ को चूसने लगा और कुछ देर की झिझक, शर्म और हिचकिचाहट के बाद उसने भी मेरे ऊपरी होंठ को चूसना शुरू किया।

जब मैंने उसके ऊपरी होंठ पर अपनी पकड़ बनाई तो उसने मेरे निचले होंठ पर पकड़ बना ली और होंठों के इस ज़बरदस्त मर्दन के बीच ही मैंने उसके होंठों को चीरते हुए अपनी ज़ुबान उसके मुंह में घुसा दी।

उसने उसका भी बहिष्कार न किया और उसे चूसने लगी, कुछ देर बाद उसने अपने जीभ मेरे मुंह में दी जिसे मैं चूसने लगा।
इस बीच मेरे दोनों हाथ लगातार उसके दोनों मखमली नितम्बों को सधे हुए हाथों से दबाते सहलाते रहे थे।

हालाँकि यह सिलसिला ज्यादा लम्बा न चल पाया क्योंकि कुछ पर्यटक उधर आ निकले थे तो हम अलग हो गए और वह आँखें चुराती अपनी अस्त व्यस्त हो चुकी साँसों को दुरुस्त करने लगी।

‘चलो अब यहाँ से चलते हैं।’ उसने अपने नक़ाब को दुरुस्त करते हुए कहा और चेहरे को वापस कवर कर लिया।

हम वहाँ से बाहर निकल आये… इमामबाड़ा छोड़ कर हम बुद्धा पार्क पहुंचे और वहीं बोटिंग करते हुए बतियाने लगे।

‘दादा जी पूछेंगे नहीं कि आज इतनी देर क्यों हो गई?’

‘कहाँ देर हो गई? तीन चार बजे तक ही तो वापसी होती है। मैंने कह भी दिया है कि मेरे पेपर होने वाले हैं तो मैं हफ्ते भर थोड़ी एक्स्ट्रा पढ़ाई करुँगी जिसके चलते मैं 6-7 बजे तक वापस आऊँगी।
तुम भी हफ्ते भर की छुट्टी ले लो, अब अगले सोमवार ही जाना। तब तक मुझे वह दुनिया दिखाओ जो मुझे किसी और तरीके से नहीं दिखनी थी।’

‘ओ के मैडम!’

वहाँ हम पांच बजे तक रुके जिसके बाद मैंने उसे आईटी पर छोड़ दिया जहाँ से वो टैम्पो पकड़ के चली गई।

मैं अपने ऑफिस पहुँच गया।
ज़बरदस्ती 8 बजे तक रुका और मैनेजर से हफ्ते भर की छुट्टी की गुहार लगाई, जिसके एवज में कई ताने तो मिले पर छुट्टी भी मिल गई और 9 बजे तक मैं वापस घर पहुँच कर ऊपर अपने पोर्शन में बंद हो गया।

दस बजे गौसिया के पास पहुँचने का वादा था।
तब तक वह भी अपने सब काम निपटा कर ऊपर अपने पोर्शन में लॉक्ड हो चुकी होनी थी।

और ठीक वक़्त पर मैं अँधेरे का फायदा उठाते हुए उसके पास पहुँच गया।

ऐसा लगता था जैसे वह भी इन हालात का फायदा उठाने के लिए खुद को मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार कर चुकी थी, यह उसके कपड़ों से ज़ाहिर हो रहा था, उसने साटन की एक स्पैगेटी पहन रखी था जिसके ऊपरी सिरे से दोनो बूब्स को आधा देखा जा सकता था और नीचे जहाँ तक उसकी लम्बाई थी, सिर्फ पैंटी पहन रखी थी जिससे उसकी मखमली भरी भरी टाँगें पूरी तरह अनावृत थीं।

‘यह कब लिया?’
‘पहले कभी लिया था। बंद कमरे में कभी कभार पहन कर अपनी वर्चुअल आज़ादी को एन्जॉय कर लेती थी! बैठो यहाँ।’

‘नीचे से किसी के आने का तो कोई चांस नहीं?’ मैं बेड पर उसके पास ही बैठते हुए बोला।

‘नीचे जीने पर ही दरवाज़ा लॉक है। वैसे भी दोनों दादा दादी घुटनों के दर्द के शिकार हैं… ऊपर पिछले दो साल में तो नहीं चढ़े।’

‘हम्म… तो अब क्या करने का इरादा है?’

‘मैंने कभी कभार नेट पे ‘उसे’ देखा है या फिर बच्चों के… मुझे दिखाओ कैसा होता है?’ कहते हुए उसने ऐसे होंठों पर ज़ुबान फेरी थी जैसे अंदर तक मुँह सूख गया हो।

मैंने देर नहीं लगाई… अपनी लोअर पहुँचों में पहुंचा दी और एकदम से अंडरवियर नीचे कर दी।
अभी यहाँ आने से पहले ही, ऐसे ही किसी संभावित क्षण की अपेक्षा में मैंने छोटे भाई की शेविंग कर डाली थी पर अभी चूँकि माहौल बना भी नहीं था इसलिए सुप्त अवस्था में ही था।

‘यह…?!? यह तो बहुत छोटा है।’ वह हैरानी से उसे नज़दीक से देखने लगी- और इतना बेजान सा क्यों है?’

‘अरे आम हालत में सैनिक ऐसे ही रहता है। जब जंग लड़ने की नौबत आती है तभी तो मूड में आता है।’

उसकी निगाहों की तपिश ने छोटू को सचेत कर दिया और उसमें जान आने लगी, लिंग की त्वचा में पड़ी झुर्रियाँ फैलने लगीं और वह सीधा होने लगा, फिर देखते देखते पूरी तरह तन कर सैल्यूट करने लगा।

वह उसकी हर हरकत को गौर से देखने लगी।

‘हर चीज़ तीन स्वरूप में होती है- लार्ज, मीडियम और स्माल… यह क्या हैसियत रखता है?’

‘अलग अलग कन्टिनेंट्स में मर्दों के अलग अलग साइज़ होते हैं। इंटरनेशनल परिपेक्ष्य में देखोगी तो यह स्माल है और एशियाई रीज़न में देखोगी तो मीडियम।’

‘मतलब मेरे शौहर का इससे बड़ा हो सकता है।’

‘हाँ क्यों नहीं। इससे बड़ा भी और मोटा भी।’

‘तो वह उसमें अंदर घुसता कैसे है? मैंने कई बार शीशे में अपनी वेजाइना का छेद देखने की कोशिश की जो दिखता तक नहीं और उसमेंइतना भी आखिर कैसे घुसेगा। इससे बड़ा तो बाद की बात है।’

‘अब वर्जिनिटी का मसला न होता तो घुसा के बता देता।’

‘वर्जिनिटी का मसला न होता तो मैं यह सवाल क्यों पूछती बाबू! एक छोटे से छेद में जब ऐसी मोटी चीज़ घुसती होगी तो बेइंतहा दर्द होता होगा न?’

‘यह कुदरत का नियम है कि जब छोटी जगह में बड़ी चीज़ जगह बनाएगी तो खिंचाव दर्द पैदा ही करेगा लेकिन यह छेद ऐसी फ्लेक्सिब्लिटी रखते हैं कि एक बार में ही उस बड़ी चीज़ के लायक जगह बना लेते हैं। हाँ एण्टर करने के वक़्त दर्द ज़रूर होगा, इसे कम किया जा सकता है लेकिन बचा नहीं जा सकता।’

‘यह बार बार ठुनक क्यों रहा है?’

‘यह भी बच्चा है, मचल रहा है, अपनी जोड़ीदार की डिमांड कर रहा है। इसे छोड़ो, मैं समझा लूँगा।
तुमने देख लिया– अब मुझे देखने दो।’

‘क्या?’
‘अपना यह मक्खन मलाई जिस्म।’
‘खुद ही देख लो।’

मतलब साफ़ था कि खुद करो जो करना हो।

मैंने लोअर फर्श पे छोड़ा और पैर समेत कर पूरी तरह बैड पे आ गया, उसे भी बीच में कर लिया और उसके दोनों हाथ पकड़ कर ऊपर उठा दिए।
बगलों में रेशमी से बाल थे और वे किसी डिओ से महक रहीं थी।

मैंने बाकायदा उन्हें सूंघते हुए चूमा और उसके जिस्म में पैदा हुई थरथराहट को अपने होंठों पर महसूस किया।
फिर थोड़ा पीछे हट कर उसकी स्पैगेटी को किनारों से पकड़ कर ऊपर उठाते हुए सर से बाहर निकाल दिया।

उभरे हुए निप्पल पहले से पता दे रहे थे कि अंदर ब्रा नहीं थी और अब वे आवरण रहित, अपने पूरे सौंदर्य के साथ, पूरे आकार में मेरे सामने बेपर्दा थे।

दो बेहद खूबसूरत, गुदाज दूध से गोरे बेदाग़ मम्मे जिनके केंद्र में दो इंच का हल्का गुलाबी भूरा हिस्सा उन छोटी छोटी चोटियों को सुरक्षित किये था जो मेरी नज़रों की आंच से उभर रही थीं… तन रही थीं।
अंदाजतन वे 34 साइज़ के थे और वज़न के कारण नीचे गिर से रहे थे।

उसके गालों पर शर्म की गहरी लालिमा फैली हुई थी और उसने आँखें भींच ली थीं।

मैंने उसे कन्धों से थामते हुए लिटा लिया।
फिर अपने होंठों का एक स्पर्श उसके एक स्तन की तनी हुई चोटी पे दिया।

उसके जिस्म में फिर कंपकंपी पैदा हुई और उसने ‘सी’ करते हुए होंठ भींच लिए।

वैसा ही स्पर्श मैंने दूसरी चोटी पे दिया।
उसने हाथों की मुट्ठियों में चादर दबोच ली और पैरों की एड़ियां गद्दे में धंसा दीं।

मैं उसे चूमते हुए नीचे हुआ और उसके सपाट पेट के बीच हल्के उभरे और गहरे नाभि के गड्ढे पे रुका, जहाँ मैंने जीभ की नोक से हल्का सा स्पर्श दिया और उत्तेजना से वह कमान सी तन गई, पेट ऊपर उठ गया।

मैंने सीधे होते उसकी पैंटी में उँगलियाँ फसाईं और उसे नीचे करते एड़ियों से बाहर निकाल दिया।

उसने फिर भी मुझे नहीं रोका, बस वैसे ही आँखे बंद किये धीरे धीरे हांफती रहीं।

उदर की ढलान पर घने काले रेशमी बालों का बड़ा सा झुरमुट उस गुदाज़ मखमली योनि को ढके हुए था जो बंद कंडीशन में बस ऐसी लग रही थी जैसे पावरोटी पर एक चीरा लगा कर उसे बंद कर दिया गया हो।

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अपनी सहूलियत के हिसाब से मैंने उसके घुटने मोड़ कर दोनों जांघों को यूँ फैला दिया कि वो बंद पड़ी गहरे रंग की लकीर खुल गई।
वह बस ख़ामोशी से होंठ भींचे थरथराती रही।

मैंने उस ज्वालामुखी के दहाने को दोनों अंगूठे लगाकर फैलाया।
एकदम सुर्ख सा अंदरूनी भाग मेरे सामने नुमाया हो गया।

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