धोबी घाट पर माँ और मैं -8

(Dhobi Ghat Per Maa Aur Main-8)

जलगाँव बॉय 2015-07-26 Comments

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ज़लगाँव बॉय
मेरा लौड़ा अब पूरी तरह से उसके थूक से भीग कर गीला हो गया था और धीरे- धीरे सिकुड़ रहा था। पर उसने अब भी मेरे लण्ड को अपने मुँह से नहीं निकाला था और धीरे-धीरे मेरे सिकुड़े हुए लण्ड को अपने मुँह में किसी चॉकलेट की तरह घुमा रही थी।
कुछ देर तक ऐसा ही करने के बाद, ज़ब मेरी सांसें भी कुछ शान्त हो गई, तब माँ ने अपना चेहरा मेरे लण्ड पर से उठा लिया और अपने मुँह में ज़मा मेरे वीर्य को अपना मुँह खोल कर दिखाया और हल्के से हंस दी।
फिर उसने मेरे सारे पानी को गटक लिया और अपनी साड़ी के पल्लु से अपने होंठों को पोंछती हुई बोली- हाय, मज़ा आ गया। सच में
कुँवारे लण्ड का पानी बड़ा स्वादिष्ट होता है। मुझे नहीं पता था कि तेरा पानी इतना मज़ेदार होगा?!!

फिर मेरे से पूछा- मज़ा आया या नहीं?
मैं क्या ज़वाब देता! ज़ोश ठण्डा हो ज़ाने के बाद मैंने अपने सिर को नीचे झुका लिया था, पर गुदगुदी और सनसनी तो अब भी कायम थी।
तभी माँ ने मेरे लटके हुए लौड़े को अपने हाथों में पकड़ा और धीरे से अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए पूछा- बोल ना, मज़ा आया या नहीं?
मैंने शरमाते हुए ज़वाब दिया- हाँ माँ, बहुत मज़ा आया, इतना मज़ा कभी नहीं आया।

तब माँ ने पूछा- क्यों, अपने हाथ से भी करता है क्या?
‘कभी कभी माँ, पर उतना मज़ा नहीं आता था जितना आज़ आया है।’
‘औरत के हाथ से करवाने पर तो ज़्यादा मज़ा आयेगा ही, पर इस बात का ध्यान रखना कि किसी को पता ना चले।’
‘हाँ माँ, किसी को पता नहीं चलेगा।’
‘हाँ, मैं वही कह रही हूँ कि किसी को अगर पता चलेगा तो लोग क्या, क्या सोचेंगे और हम दोनों की बदनामी हो ज़ायेगी क्योंकि हमारे
समाज़ में माँ और बेटे के बीच इस तरह का सम्बन्ध सही नहीं माना ज़ाता ! समझा?’
मैंने भी अब अपनी शर्म के बन्धन को छोड़ कर ज़वाब दिया- हाँ माँ, मैं समझता हूँ। हम दोनों ने ज़ो कुछ भी किया है, उसका मैं किसी को पता नहीं चलने दूंगा।

तब माँ उठ कर खड़ी हो गई, अपनी साड़ी के पल्लू को और मेरे द्वारा मसले गये ब्लाउज को ठीक किया और मेरी ओर देख कर मुस्कुराती हुई अपनी बुर को अपनी साड़ी पर से हल्के से दबाया और साड़ी को चूत के उपर ऐसे रगड़ा ज़ैसे कि पानी पोंछ रही हो। मैं उसकी इस क्रिया को बड़े गौर से देख रहा था।

मेरे ध्यान से देखने पर वो हंसते हुए बोली- मैं ज़रा पेशाब कर के आती हूँ। तुझे भी अगर करना है तो चल, अब तो कोई शर्म नहीं है। मैंने हल्के से शरमाते हुए मुस्कुरा दिया तो बोली- क्यों, अब भी शरमा रहा है क्या?
मैंने इस पर कुछ नहीं कहा और चुपचाप उठ कर खड़ा हो गया।

वो आगे चल दी और मैं उसके पीछे पीछे चल दिया। झाड़ियों तक के दस कदम की यह दूरी मैंने माँ के पीछे पीछे चलते हुए उसके
गोल मटोल गदराये हुए चूतड़ों पर नज़रें गड़ाये हुए तय की। उसके चलने का अंदाज़ इतना मदहोश कर देने वाला था।
आज़ मेरे देखने का अंदाज़ भी बदला हुआ था, शायद इसलिये मुझे उसके चलने का अंदाज़ गज़ब का लग रहा था। चलते वक्त उसके दोनों चूतड़ बड़े नशीले अंदाज़ में हिल रहे थे और उसकी साड़ी उसके दोनों चूतड़ों के बीच में फंस गई थी, ज़िसको उसने अपने हाथ पीछे
ले ज़ा कर निकाला।

ज़ब हम झाड़ियों के पास पहुँच गये तो माँ ने एक बार पीछे मुड़ कर मेरी ओर देखा और मुस्कुराई। फिर झाड़ियों के पीछे पहुँच कर बिना कुछ बोले अपनी साड़ी उठा कर मूतने बैठ गई। उसकी दोनों गोरी गोरी ज़ांघें ऊपर तक नंगी हो चुकी थी और उसने शायद अपनी साड़ी को थोड़ा जानबूझ कर पीछे से ऊपर उठाया था जिसके कारण उसके दोनों चूतड़ भी नुमाया हो रहे थे।
यह नजारा देख कर मेरा लण्ड फिर से फुफकारने लगा।
उसके गोरे-गोरे चूतड़ बड़े कमाल के लग रहे थे।

माँ ने अपने चूतड़ों को थोड़ा-सा उचकाया हुआ था जिसके कारण उसकी गाण्ड की खाई भी दिख रही थी। हल्के भूरे रंग की गाण्ड की खाई देख कर दिल तो यही कर रहा था कि पास ज़ाकर उस गाण्ड की खाई में धीरे धीरे उंगली चलाऊँ और गाण्ड के भूरे रंग के छेद को अपनी उंगली से छेड़ कर देखूँ कि कैसे पकपकाता है।
तभी माँ पेशाब करके उठ खड़ी हुई और मेरी तरफ घूम गई। उसने अभी तक साड़ी को अपनी जांघों तक उठा रखा था। मेरी ओर देख कर मुस्कुराते हुए उसने अपनी साड़ी को छोड़ दिया और नीचे गिरने दिया, फिर एक हाथ को अपनी चूत पर साड़ी के ऊपर ले ज़ा कर रगड़ने लगी ज़ैसे कि पेशाब पोंछ रही हो! और बोली- चल तू भी पेशाब कर ले, खड़ा खड़ा मुँह क्या ताक रहा है?

मैं ज़ो कि अभी तक इस सुंदर नज़ारे में खोया हुआ था, थोड़ा सा चौंक गया, फिर हकलाते हुए बोला- हाँ हाँ अभी करता हूँ!
मैंने सोचा- पहले तुम कर लो इसलिये रुका था।
फिर मैंने अपने पज़ामे के नाड़े को खोला और सीधे खड़े खड़े ही मूतने की कोशिश करने लगा।
मेरा लण्ड तो फिर से खड़ा हो चुका था और खड़े लण्ड से पेशाब ही नहीं निकल रहा था।
मैंने अपनी गाण्ड तक का ज़ोर लगा दिया पेशाब करने के चक्कर में।

माँ वहीं बगल में खड़ी होकर मुझे देखे ज़ा रही थी। मेरे खड़े लण्ड को देख कर वो हंसते हुए बोली- चल ज़ल्दी से कर ले पेशाब, देर हो रही है, घर भी ज़ाना है।
मैं क्या बोलता! पेशाब तो निकल नहीं रहा था।
तभी माँ ने आगे बढ़ कर मेरे लण्ड को अपने हाथों में पकड़ लिया और बोली- फिर से खड़ा कर लिया, अब पेशाब कैसे उतरेगा?
कह कर लण्ड को हल्के हल्के सहलाने लगी।

अब तो लण्ड और भी सख्त हो गया, पर मेरे ज़ोर लगाने पर पेशाब की एक आध बूंद नीचे गिर गई।
मैंने माँ से कहा- अरे, तुम छोड़ो ना इसको, तुम्हारे पकड़ने से तो यह और खड़ा हो जाएगा। हाय छोड़ो!
और माँ का हाथ अपने लण्ड पर से झटकने की कोशिश करने लगा।

इस पर माँ ने हसते हुए कहा- मैं तो छोड़ देती हूँ! पर पहले यह तो बता कि खड़ा क्यों किया था? अभी दो मिनट पहले ही तो तेरा पानी निकाला था मैंने, और तूने फिर से खड़ा कर लिया। कमाल का लड़का है तू तो।
मैं खुछ नहीं बोला, अब लण्ड थोड़ा ढीला पड़ गया था और मैंने पेशाब कर लिया। मूतने के बाद ज़ल्दी से पज़ामे के नाड़े को बांध कर मैं माँ के साथ झाड़ियों के पीछे से निकल आया।
माँ के चेहरे पर अब भी मंद मंद मुस्कान दिख रही थी।

मैं ज़ल्दी-ज़ल्दी चलते हुए आगे बढ़ा और कपड़े के गट्ठर को उठा कर अपने सिर पर रख लिया।
माँ ने भी एक गट्ठर को उठा लिया और अब हम दोनों माँ बेटे ज़ल्दी ज़ल्दी गाँव के पगडंडी वाले रास्ते पर चलने लगे।

गर्मी के दिन थे, अभी भी सूरज चमक रहा था, थोड़ी दूर चलने के बाद ही मेरे माथे से पसीना छलकने लगा। मैं ज़ानबूझ कर माँ
के पीछे पीछे चल रह था ताकि माँ के मटकते हुए चूतड़ों का आनन्द लूट सकूँ, और मटकते हुए चूतड़ों के पीछे चलने का एक अपना ही आनन्द है।
आप सोचते रहते हो कि कैसे दिखते होंगे ये चूतड़ बिना कपड़ों के? या फिर आपका दिल करता है कि आप चुपके से पीछे से ज़ाओ और उन चूतड़ों को अपनी हथेलियों में दबा लो और हल्के मसलो और सहलाओ। फिर हल्के से उन चूतड़ों के बीच की खाई यानि कि गाण्ड के
गड्ढे पर अपना लण्ड सीधा खड़ा कर के सटा दो और हल्के से रगड़ते हुए प्यारी सी गर्दन पर चुम्मियाँ लो।
यह सोच आपको इतना उत्तेज़ित कर देती है, ज़ितना शायद अगर आपको सही में चूतड़ मिले भी अगर मसलने और सहलाने को तो शायद उतना उत्तेज़ित ना कर पाये।
चलो बहुत बकवास हो गई, आगे की कहानी लिखते हैं।
तो मैं अपना लण्ड पज़ामे में खड़ा किये हुए अपनी लालची नज़रों को माँ के चूतड़ों पर टिकाए हुए चल रहा था। माँ ने मुठ मार कर मेरा पानी तो निकाल ही दिया था, इस कारण अब उतनी बेचैनी नहीं थी, बल्कि एक मीठी मीठी सी कसक उठ रही थी और दिमाग बस एक ही ज़गह पर अटका पड़ा था।

तभी माँ पीछे मुड़ कर देखते हुए बोली- क्यों रे, पीछे-पीछे क्यों चल रहा है? हर रोज़ तो तू घोड़े की तरह आगे आगे भगता फिरता था? मैंने शर्मिन्दगी में अपने सिर को नीचे झुका लिया।
हालांकि अब शर्म आने ज़ैसी कोई बात तो थी नहीं, सब-कुछ खुल्लम खुल्ला हो चुका था, मगर फिर भी मेरे दिल में अब भी थोड़ी बहुत हिचक तो बाकी थी ही।

माँ ने फिर कुरेदते हुए पूछा- क्यों, क्या बात है, थक गया है क्या?
मैंने कहा- नहीं माँ, ऐसी कोई बात तो है नहीं, बस ऐसे ही पीछे चल रहा हूँ।
तभी माँ ने अपनी चाल धीमी कर दी और अब वो मेरे साथ साथ चल रही थी, मेरी ओर अपनी तिरछी नज़रों से देखते हुए बोली- मैं भी अब तेरे को थोड़ा बहुत समझने लगी हूँ। तू कहाँ अपनी नज़रें गड़ाये हुए है, यह मेरी समझ में आ रहा है। पर अब साथ-साथ चल, मेरे पीछे पीछे मत चल क्योंकि गाँव नज़दीक आ गया है, कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा?
कह कर मुस्कुराने लगी।

मैंने भी समझदार बच्चे की तरह अपना सिर हिला दिया और साथ साथ चलने लगा।
माँ धीरे से फुसफुसाते हुए कहने लगी- घर चल, तेरा बापू तो आज़ घर पर है नहीं, फिर आराम से ज़ो भी देखना है, देखते रहना।
मैंने हल्के से विरोध किया- क्या माँ, मैं कहाँ कुछ देख रहा था? तुम तो ऐसे ही बस तभी से मेरे पीछे पड़ी हो।
इस पर माँ बोली- लल्लू, मैं पीछे पड़ी हूँ या तू पीछे पड़ा है? इसका फैसला तो घर चल के कर लेना।
फिर सिर पर रखे कपड़ों के गट्ठर को एक हाथ उठा कर सीधा किया तो उसकी कांख दिखने लगी। ब्लाउज उसने आधी बांह का पहन रखा था। गर्मी के कारण उसकी कांख में पसीना आ गया था और पसीने से भीगी उसकी कांखें देखने में बड़ी मदमस्त लग रही थी।
मेरा मन उन कांखों को चूम लेने का करने लगा था।

एक हाथ को ऊपर रखने से उसकी साड़ी भी उसकी चूचियों पर से थोड़ी सी हट गई थी और थोड़ा बहुत उसका गोरा गोरा पेट भी दिख रहा था इसलिये चलने की यह स्थिति भी मेरे लिए बहुत अच्छी थी और मैं आराम से वासना में डूबा हुआ अपनी माँ के साथ चलने लगा।
कहानी जारी रहेगी।
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