शीला का शील-11

(Sheela Ka Sheel- Part 11)

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‘सुन रानो, अगर यह लाइट बंद कर दें तो? हमेशा धड़का लगा रहता है मन में कि बबलू या आकृति में से कोई नीचे न आकर देख ले जैसे तूने देख लिया था।’

‘दीदी, चाचा को अंधेरे की आदत नहीं। थोड़ी देर में ही उलझने लगेगा। उन दोनों की फ़िक्र मत करो, दोनों वक़्त से पहले ही समझदार हो चुके हैं। कभी ऐसी नौबत आ भी गई तो हमें समझेंगे।’

‘आज करें क्या चाचा के साथ?’
‘तुम नहीं दी, अभी दो दिन तो हुए तुम्हारी योनि खुले, अभी तो पगला जाओगी। कल बिस्तर से उठना दूभर हो जायेगा।’
बातें करती दोनों बिस्तर पे आ बैठीं और शीला नर्म हाथों से चाचा के लिंग को सहलाने लगी।

रानो ने तेल लेकर चाचा के लिंग पर चुपड़ दिया और थोड़ा शीला के हाथों में लगा कर थोड़ा खुद के हाथों में लगाने के बाद वह भी चाचा के लिंग से छेड़छाड़ करने लगी।

चाचा की आंतरिक भावनायें क्या थीं, यह उसके चेहरे या आँखों से परिलक्षित नहीं होती थीं लेकिन वह उन दोनों को देख रहा था जैसे समझने की कोशिश कर रहा हो।

वह किसी भी उम्र का हो दिमाग में किसी बच्चे जैसा था जिसे रिश्तों की समझ नहीं थी… बस जो शरीर को अच्छा लगता था उसे महसूस करना चाहता था।

जबकि वह दोनों भी पिछली बातों और बाधाओं से उबर कर अब सिर्फ उस सुख को ही अनुभव करना चाहती थीं जो ऐसे हालात में शरीर को मिलता था।

एक-एक हाथ से न सिर्फ वह चाचा के लिंग को सहला रही थीं— मसल रही थीं बल्कि उसके अंडकोषों को भी सहला रही थीं— दबा रही थीं।

थोड़ी देर बाद जब लिंग एकदम सख्त हो गया तो शीला ने ही पहल करते हुए थोड़ा तेल अपनी योनि में लगाया और नाइटी ऊपर उठाते चाचे के लिंग पर इस तरह बैठी कि लिंग लेटी अवस्था में चाचा के पेट से सटा हुआ था और उसके ऊपर शीला की योनि दोनों होंठ खोल कर इस तरह रखी थी कि ऊपर नीचे के क्रम में रगड़ने पर अंदरूनी भाग में घर्षण का अनुभव हो।

न सिर्फ उसे लिंग की नर्म गर्माहट मिले बल्कि चाचा को भी उसकी योनि के अंदरूनी भाग की गर्माहट और घर्षण मिलता रहे।

अब चाचा की आँख मुंद गईं और वह शायद उस रोमांच में डूब गया।
शीला अब आगे पीछे होने लगी थी और रानो पीछे से चाचा के अंडकोषों को सहला रही थी।

‘अभी सोनू आएगा न… क्यों उतावली हो रही हो दी?’ रानो ने हंसते हुए कहा।
‘तो क्या… दो बार नहीं मज़ा ले सकती।’ कहते हुए शीला ने महसूस किया कि जैसे अब वह भी किसी हद तक बेशर्म हो चली है।
‘ज़रूर लो… पर थोड़ा मेरा भी ख्याल करो…’

उसकी बात पर शीला के दिमाग को झटका सा लगा। उसे ख्याल आया कि उसे ख़ुशी देने के चक्कर में रानो ने अपनी ख़ुशी की क़ुर्बानी दी थी।
अगर सोनू शीला की वासना शांत कर रहा था तो रानो की प्यास का क्या?

वह चाचा के ऊपर से हट गई।
चाचा आँखें खोलकर उन्हें देखने लगा।

‘तुम आओ।’
पहले रानो ने उसकी आँखों में झांक कर ये सुनिश्चित किया कि उसे बुरा तो नहीं लगा था, फिर नकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने पर वह अपनी नाइटी उठाते हुए उसी के अंदाज़ में चाचा के लिंग पर आ बैठी।
और आगे-पीछे सरकती घर्षण का मज़ा लेने लगी… देने लगी।

लेकिन थोड़ी देर के घर्षण ने ही रानो के शरीर में दौड़ते खून को उबाल दिया। कई दिनों की दबी हुई प्यास बुरी तरह भड़क उठी।

‘दीदी, मैं अब बिना किये नहीं रह सकती। तुम हेल्प करो।’ उसने बेबसी से शीला को देखा।
‘कैसे?’
वो चाचा के ऊपर झुकती हुई उसके सीने से इस तरह सट गई कि उसकी योनि ठीक चाचे के लिंग की नोक के ऊपर आ गई।
‘इसे छेद से सटाओ।’

पीछे से शीला को उसके बिना चर्बी के कसे हुए नितम्ब दिख रहे थे, नितंबों की दरार में गुदा का छेद दिख रहा था और उसके साथ लगी योनि भी पूरे आकार में दिख रही थी।

उसने चाचा के लिंग के अग्रभाग को उसकी योनि के कुछ हद तक खुले छेद से सटाया।
‘पकड़े रहना, इधर उधर मत होने देना।’

शीला ने सहमतिसूचक ‘हूँ’ की और रानो अपनी योनि को नीचे धकेलने लगी।
चाचा का शिश्नमुंड आलू की तरह बड़ा सा था जो ऐसे तो एकदम से घुस जाने लायक नहीं था।

शीला लिंग को थामे न होती तो तय था कि वह फिसल कर ऊपर नीचे चला जाता मगर चूँकि वह स्थिर था तो इधर उधर होने के बजाय छेद पर ही दबाव डाल रहा था और योनिमुख की दीवारें दबाव झेलती फैल रही थीं।

मांसपेशियों में इस तरह के खिंचाव की तकलीफ रानो ने पहले भी झेली थी, पर पहले किसी और ने दी थी और अब वह खुद से झेल रही थी।

फिर खिंचाव बढ़ते-बढ़ते एकदम शिश्नमुंड अंदर घुस पड़ा।
रोकते-रोकते भी रानो के मुंह से दबी-दबी चीख निकल गई… उसे ऐसा लगा था जैसे उसकी योनि फट ही गई हो।

तकलीफ कुछ इसी तरह की थी, शरीर ने हल्की ठंड के बावजूद पसीना छोड़ दिया।
वह खुद को स्थिर कर के दांत पे दांत जमाये, होंठ भींचे उस तकलीफ को बर्दाश्त करने लगी।

‘बहुत ज्यादा दर्द हो रही है क्या?’ शीला ने चिंतित स्वर में कहा।
‘हम्म… पर यह तो एक न एक दिन झेलनी ही है। तुम हाथ चलाती रहो वर्ना चाचा ने धक्के लगाने शुरू कर दिये तो मैं संभाल नहीं पाऊँगी।’

उसकी बात समझ के शीला जल्दी से लिंग पर हाथ चलाने लगी।

अब स्थिति यह थी कि चाचा का स्थूलकाय लिंग ऊपर की तरफ ऐसे रानो की योनि में फंसा हुआ था कि पीछे से देखने पर वो रानो की तीसरी टांग जैसा लग रहा था।

नीचे हस्तमैथुन के अंदाज़ में शीला हाथ ऊपर नीचे कर रही थी और रानो एकदम स्थिर उस बड़े से शिश्नमुंड को अपनी योनि में एडजस्ट करने की कोशिश कर रही थी।

फिर खुद से अपना एक हाथ नीचे ले जाकर अपनी ही योनि के भगांकुर को सहलाने रगड़ने लगी, जिससे उसमें वासना की तरंगें फिर उसी तेज़ गति से दौड़ें जैसे अभी दौड़ रही थीं।

उसे देख शीला भी अपने दूसरे हाथ से अपनी योनि सहलाने मसलने लगी।

थोड़ी देर की कोशिशों के बाद जब रानो इस प्रवेश आघात के झटके से उबर पाई तो उसने हाथ योनि से हटा कर चाचा की पसलियों के साइड में टिका लिया।

और अपनी योनि को धीरे-धीरे नीचे सरकाने लगी… ऐसा लगा जैसे एक विशालकाय गर्म सलाख उसकी योनि की संकुचित दीवारों को अपनी रगड़ से परे हटाती अंदर धंसती जा रही थी।
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तकलीफ तो निश्चित ही थी मगर इसे पार कर के ही आनन्द के स्रोत को पाया जा सकता था।
उसे योनि नीचे दबाते देख शीला अपना हाथ नीचे करके अंडकोषों पे ले आई।

और चाचा को चूँकि पहली बार योनि के अंदर की गर्म भाप का आनन्द मिल रहा था तो अब उसकी साँसें भी भारी हो चली थीं।

रानो ने योनि उस अंतिम सिरे तक नीचे सरकाई जहां लिंग उसकी बच्चेदानी से टकराता पेट में गड़ने की अनुभूति देने लगा।
फिर अंतिम बैरियर तक पहुंच कर वह थम गई।

‘कितना बचा?’ उसने गर्दन घुमा कर शीला को देखा।
‘एक चौथाई… तीन चौथाई अंदर है।’
‘बस, इससे ज्यादा और नहीं अंदर ले सकती। यह मेरी अंतिम हद है।’

‘इससे क्या चाचे को कोई फर्क पड़ेगा?’
‘पता नहीं— पड़ना तो नहीं चाहिये लेकिन क्या पता, कहीं ये पूरा घुसाने पर तुल गया तो मैं मारी जाऊँगी। तुम नीचे के हिस्से पर हाथ चलती रहना।’
‘ठीक है।’

अपनी अंतिम सीमा तक लिंग को अपनी योनि में समाहित कर के थोड़ी देर तक वह खिंची फैली योनि की दीवारों को मौका देती रही कि वे उसे ठीक से स्वीकार कर लें।

फिर धीरे-धीरे करके वह ऊपर नीचे होने लगी।
लिंग जैसे उसकी योनि में एकदम फंसा हुआ था जिसे ऊपर नीचे करने में भी रानो को तकलीफ महसूस हो रही थी, लेकिन अंदर जैसे जैसे चिकनाई और मांसपेशियों का लचीलापन बढ़ेगा उसे राहत हो जाएगी, यह उसे पता था।

वासना में सराबोर घड़ियां गुज़रती रहीं।
और धीरे-धीरे जब योनि-रस इतना हो गया कि समागम में आसानी हो सके तो मांसपेशियां भी ढीली पड़ गईं और वो तेज़ गति से धक्के लगाने लगी।

लेकिन चूंकि औरत का शरीर प्राकृतिक रूप से आघात करने के लिये नहीं बल्कि आघात सहने के लिये बना होता है तो वह जल्दी ही थक भी गई और रुक कर हांफने लगी।

‘बड़ी मुश्किल है… यह काम मर्दों का होता है, खुद करो तो कितनी जल्दी थकन आ जाती है।’ वह हांफते हुए बोली।

रुकते वक़्त उसने योनि ऊपरी सिरे पर पहुंचा ली थी जिससे शीला नीचे के लिंग पर हाथ चला सके और शीला वही कर रही थी।

‘किसी मंदबुद्धि के साथ सम्भोग करने में बड़ी मुश्किलें हैं। मैं ऊपर बैठ कर करुं तो थोड़ी आसानी तो होगी मगर साथ ही डर भी है कि ज्यादा घुसने पर तकलीफ देगा।’

पर थोड़ी देर बाद उसने किया यही।
आगे पीछे होने से ज्यादा आसान था ऊपर नीचे होना।

मगर यहां अपने घुटनों पर खास ज़ोर देना था कि कहीं एकदम पूरा ही न बैठ जाये और लिंग की लंबाई उसे तकलीफ दे जाये।

पर ऐसा कुछ न हुआ और वह ठीक ढंग से सम्भोग करने में कामयाब रही।
ये और बात थी कि वह इस तरह चरम तक तो पहुंच गई मगर चरमानन्द न पा सकी।

जबकि चाचा पहली बार के योनि से समागम की गर्माहट बहुत ज्यादा देर न झेल सका और जल्दी ही स्खलित हो गया।

उसे अच्छे से स्खलित करा के वह एकदम से उस पर से हट कर, दोनों टांगें फैला कर साइड में चित लेट गई।

‘दीदी, जल्दी से उंगली से कर दो। मेरा भी होने वाला है।’

शीला, जो अब तक उन्हें देखती अपनी योनि सहलाने में लगी थी, एकदम उठ कर उसकी टांगों के बीच में आ गई और बीच वाली उंगली रानो की योनि में घुसा कर अंदर बाहर करने लगी।

उसकी योनि में भरा चाचा का वीर्य जो पहले से बह रहा था… और तेज़ी से बाहर आने लगा।
‘दीदी, दो उंगलियों से करो।’ रानो अपने स्तन मसलते हुए बोली।

शीला ने एक की जगह दो उंगलियां घुसा दीं और तेज़ी से अंदर बाहर करने लगी।

रानो एक हाथ से अपने वक्ष मसलती दूसरे हाथ से अपने भगांकुर को रगड़ने लगी।
और इस तरह जल्दी ही चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई, शरीर एक बार ज़ोर से कांपा और फिर झटके लेने लगा।

शीला तब तक उंगली चलाती रही जब तक वह शांत न पड़ गई।

तभी उसके फोन पर सोनू की मिस्ड आ गई।
‘तुम ही जाओ दी, मुझमें हिलने की भी हिम्मत नहीं, मुझे पूछे तो कह देना कि मैं आज आकृति के पास ही सो गई हूँ।’ रानो बेहद शिथिल स्वर में बोली।

‘और यहां की सफाई?’
‘थोड़ी देर में मैं कर दूंगी। तुम जाओ।’

अपनी नाइटी दुरुस्त करती शीला उठ कर कमरे से बाहर निकल आई।

सोनू के चक्कर में बाहर अंधेरा ही रखा जाता था, उसी अंधेरे में जा कर शीला ने चुपके से सोनू को अंदर ले लिया।

उसे देख कर वह चौंका था और अपेक्षित रूप से रानो के बारे में पूछा था तो रानो का बताया जवाब उसे दे के शीला ख़ामोशी से अपने कमरे में ले आई थी।

वह पहले से काफी गर्म थी और अब सम्भोग के लिये एक मर्द भी उपलब्ध था, उसकी ख्वाहिशें बेलगाम हो उठीं।
आज उसने खुद से पहल की।

जो भी उसके दिमाग में था, जो जो वह सोचती आई थी मगर अपनी स्त्री सुलभ लज्जा और झिझक के कारण करने में असमर्थ रही थी, आज उसने वह सब किया।

उसने जिस खुलेपन और आक्रामक अन्दाज़ में वासना के इस खेल को पूरा किया, उसने सोनू को भी चकित कर दिया जो उसके इशारों पर अलग अलग आसनों से बस उसे भोगता रहा।

आज रोकने के लिये रानो भी नहीं थी। उसने जी भर के दो घंटे में तीन बार पूर्ण सम्भोग करने के बाद ही सोनू को मुक्त किया और उसके जाने के बाद सुकून की गहरी नींद सो गई।

अगली सुबह उसके लिये तो नार्मल ही थी मगर रानो दर्द से बेहाल थी और उसकी योनि भी बुरी तरह सूज गई थी— जिसके लिये उसे बाकायदा दवा भी लेनी पड़ी थी।

बहरहाल, यह सिलसिला चल निकला… लगभग हर रोज़ ही रात को एक निश्चित वक़्त पे सोनू आने लगा और उसके साथ सम्भोग का अवसर शीला को ही मिलता था।

रानो ने जैसे खुद पर सब्र की बंदिशें लगा ली थीं उन दिनों… उसने जैसे खुद को चाचा के लिये ही सुरक्षित कर लिया था।

चाचा ने अगले बार जब पुकार लगाई तो उसकी योनि सही हालात में आ चुकी थी और इस बार उसे कम तकलीफ और हल्की सूजन का ही सामना करना पड़ा था जो दो दिन में ठीक हो गई थी।

और फिर उसकी योनि चाचा के स्थूलकाय लिंग की आदी हो गई थी जिससे उसे न सिर्फ कष्ट से छुटकारा मिल गया था बल्कि मज़े में भी वृद्धि हो गई थी।

हालांकि ऐसा नहीं था कि शीला को आत्मग्लानि न होती हो… वह जिस रास्ते पर चल पड़ी थी वहां उसे शरीर का सुख तो हासिल था मगर ये ग्लानि किसी भी पल में उसका पीछा न छोड़ती थी।

सोनू के साथ जितने पल होती थी, दिमाग पर वासना हावी रहती थी मगर उसके जाते ही वो अपराधबोध से घिर जाती और इसी तरह चाचा के पास उन पलों में जाने भी उसे अपने ग़लत होने का अहसास होता था।

भले अब चाचा के लिंग का इस्तेमाल रानो करती थी मगर उन क्षणों में उसके साथ वह भी तो होती थी।

बस जैसे तैसे करते महीना भर यूँही गुज़र गया।
और फिर एक दिन…

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